शापित अनिका: भाग १६

आशुतोष अपने कपड़े चेंज कर वार्ड में बैठा ही था कि मि. श्यामसिंह कमरे में दाखिल हुये।


"तुम ठीक हो?" मि. श्यामसिंह आंखों में आंसू भरकर बोले।


"हां पापा.... मैं बिल्कुल ठीक हूं।"


"पता है मैं कितना ड़र गया था?" कहते हुये मि. श्यामसिंह ने आशुतोष को गले से लगा लिया- "एक पल को तो लगा कि...."


"मैं ठीक हूं पापा!" आशुतोष ने आश्वासन दिया- "वो एक्चुअली मैं समाधि लगाकर बैठा था और बेवकूफ होटल वालों ने मुझे हॉस्पिटल में एड़मिट करा दिया।"


"समाधि?" श्यामसिंह चौंककर बोले- "और अनिका कहां है?"


"वो अघोरा का गढ़ ढूंढने गई है और मैं अघोरा को मारने का हथियार ढूंढ रहा था। होटल लौटकर मैं उसी से तो ध्यान लगाकर बात कर रहा था और उसके साथ ही आगे बढ़ रहा था और इनको लगा कि मैं कोमा में चला गया।" आशुतोष ने कोरा झूठ बोला क्योंकि वो अनिका के बारे में बताकर उनको तकलीफ नहीं देना चाहता था।


"ओह.... लेकिन...."


"आप मुझे होटल छोड़कर वापस लौट जाइये पापा...." आशुतोष बोला- "सब सेट हो गया है और अगर सब- कुछ ठीक रहा तो तीन- चार दिन में हम भी अघोरा को खत्म कर देहरादून लौट आयेंगें।"


"ठीक है। मैं सुबह ही...."


"नहीं पापा...." आशुतोष बात काटकर व्यग्र भाव से बोला- "आप समझ नहीं रहे हैं। अघोरा अब आजाद हो चुका है और आप यहां रहेंगें तो आपको हमारे खिलाफ यूज कर सकता है इसलिये आप वापस देहरादून लौट जाइये।"


"पर बेटा मैं इस वक्त पौड़ी से देहरादून कैसे जाऊं?"


"तो फिर आप देवलगढ़ चले जाइये।" आशुतोष ने सुझाया- "वो पवित्र जगह है और वहां अघोरा की ताकत काम नहीं करेगी।"


"ठीक है बेटा...." मि. श्यामसिंह ने अनमने भाव से कहा और आशुतोष को साथ लेकर होटल की तरफ रवाना हुये। कुछ ही देर में दोनों होटल के आगे थे, जहां आशुतोष को उतारकर मि. श्यामसिंह ने गाड़ी देवलगढ़ की तरफ बढ़ा दी। आशुतोष ने भी रिसेप्शन पर बात की और चाबी लेकर अपने कमरे की तरफ बढ़ चला।


* * *



अर्द्धरात्रि का समय था। हर तरफ गहन निःशब्दता छाई हुई थी। वो एक अजीब सा कमरा था, जिसे देखकर लग रहा था मानों धरती पर साक्षात नर्क- द्वार खुला हो। वो कमरे से अधिक एक गुफा प्रतीत हो रही थी। कमरे में द्वार के अंदर कुछ ही दूरी पर चारों तरफ गहरी खाई थी, जिसमें गर्म खौलता लावा उमड़ रहा था। उसी लावे से उठने वाले प्रकाश से उस जगह पर नाम मात्र का प्रकाश था। इस खाई के बीचों बीच एक टापू सा बना था, जिस पर एक मंडप में बैठा अघोरा तेज आवाज में मंत्रोच्चारण कर रहा था।


वो मंडप भी काफी अजीब सा था, जिसके चारों तरफ चार काले खम्बे खड़े थे लेकिन मंडप पर कोई छत नही थी। इन्हीं चार स्तम्भों के मध्य में एक हवन- कुंड स्थापित था, जिसमें अघोरा आहुतियां ड़ाल रहा था। उसके ठीक सामने एक अत्यंत विकराल रूप वाली विशाल प्रतिमा थी, जो किसी उग्र- शक्ति का प्रतीक प्रतीत होती थी। अघोरा का मंत्रोच्चारण और आहुतियां अपने चरम पर थीं कि तभी चार काले साये उसकी पीठ के पीछे प्रकट हुये।


"क्षमा कीजियेगा महामहिम! परन्तु हम आपके प्रदत्त कार्य को पूर्ण नहीं कर पाये।" एक साये ने ड़रते- ड़रते कहा तो अघोरा ने मंत्रोच्चारण के बीच रक्तिम नेत्रों से उसे देखा।


"दया.... दया.... महामहिम!" वो साया गिड़गिड़ाते हुये घुटनों के बल बैठ गया- "परन्तु हम उसे छू भी नहीं पाये।"


"क्या अघोरा की काली शक्तियों के योद्धाओं का बल इतना क्षीण हो गया है कि वो एक साधारण से मानव को स्पर्श तक करने में सक्षम नहीं है।" अघोरा दहाड़ते हुये अनुष्ठान से उठ बैठा और उस साये का गला दबोच कर हवा में उठा लिया।


"क्षमा.... महामहिम.... उसका कवच.... अदृश्य....!" वो साया अटकते- अटकते बोला लेकिन अघोरा का क्रोध अपने चरम पर था। उसने दहाड़ते हुये उसे गर्म लावे में फेंक दिया- "जाओ और अनंतकाल तक मेरे द्वारा निर्मित इस नरक- कुंड में पश्चाताप करो कि क्यों तुमने अघोरा के कार्य में पराजय स्वीकार करने की भूल की।"


इसके साथ ही अघोरा दूसके साये की तरफ बढ़ा, जो उसके भय से थर- थर कांप रहा था। यों तो अघोरा का भय तीनों ही सायों पर स्पष्ट था लेकिन जिसके सामने जाकर अघोरा रूका, उसके तो जैसे प्राण दोबारा सूख गये। किसी तरह साहस जुटाकर बोला- "महामहिम! ये तो सत्य है कि हम आशुतोष का कुछ भी अहित नहीं कर पाये परन्तु...."


"परन्तु...." अघोरा ने तीक्ष्ण नेत्रों से उसे देखा।


"परन्तु हमने अपने सामर्थ्यानुसार प्रयास किया लेकिन उसके हाथ पर देवी राज- राजेश्वरी का पवित्र धागा बंधा है, जिस कारण हम उसे स्पर्श नहीं कर पाये।"


"तो तुम भी पराजय स्वीकार कर लौट आये?" अघोरा ने उसकी छाती पर लात जमा दी, जिससे वो भी लड़खड़ाते हुये लावा- कुंड में जा समाया। इसके बाद अघोरा ने तीसरे साये का रूख किया।


"हमने प्रयत्न करना नहीं छोड़ा महामहिम!" तीसरा साया ड़र के मारे सिर झुकाकर घुटनों के बल बैठ गया। मानों इस अनुशासन और सम्मान प्रदर्शन से वो अघोरा के कोप से बच जायेगा। बोला- "हमने अपनी शक्तियों से कक्ष की वस्तुओं से उसपर आक्रमण शुरू किया परन्तु वो वस्तुएं उसको छूने से पहले ही नष्ट हो जातीं। परन्तु हमें आश्चर्य इस बात का है कि वो कौन सी शक्ति है, जो उसकी रक्षा कर रही थी क्योंकि वो तो इन सबसे अनभिज्ञ निद्रामग्न था।"


"ये क्या प्रलाप है? एक तुच्छ से मानव की रक्षा भला कौन सी शक्ति करेगी?" अघोरा उस पर गरजा।


"ये तो ज्ञात नहीं महामहिम, परन्तु वो शक्ति अत्यंत ही शक्तिशाली है।" साये ने प्राणदान पाकर राहत की सांस ली- "क्योंकि जैसे ही हमने उसपर प्राणघातक आघात करना चाहा, हमें एक तीव्र झटका लगा और हम सीधे यहां फिंक गये।"


"आश्चर्य! अंततः वो कौन सी शक्ति है जो उस तुच्छ से मानव की रक्षा में तत्पर हैं?" अघोरा अपने में ही बड़बड़ाया और उन सायों को जाने का संकेत किया।


"प्रतीत होता है कि हमने अपने प्रतिद्वंदी को कम आंकने की भूल की, परन्तु जहां हमारे काले योद्धा असफल होते हैं, वहां हमारा तंत्र- शास्त्र हमें निश्चित ही सफलता दिलायेगा।" कहते हुये अघोरा ने अट्टाहास किया और पुनः आसन पर बैठकर मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया।


* * *



आशुतोष रिसेप्शन से चाबी लेकर अपने कमरे में पहुंचा। उसे ताज्जुब हो रहा था कि तीस-चालीस घंटे की नींद के बाद भी वो पूरी तरह से थका महसूस कर रहा था। उसे हैरानी थी कि शनिदेव ने उसकी पिछले जन्म की शक्तियों को जागृत किया था लेकिन उसे स्वयं में कोई भी परिवर्तन महसूस नहीं हो रहा था। उस पर दैहिक थकान से ज्यादा मानसिक थकान भारी थी इसलिये जैसे ही कुछ देर दिमाग को शांत करने के लिये वो बिस्तर पर लेटा, उसे नींद ने आ घेरा।


रात को अचानक उसे महसूस हुआ कि कमरे का तापमान तेजी से गिर रहा है। काफी देर तक तो वो हाथ- पैर सिकोड़कर लेटा रहा लेकिन उसे अचानक से कुछ अजीब- अजीब सी आवाजें सुनाई दी तो वो चौंककर उठ बैठा। आंखे खोलते ही उसकी चीख निकल गई।


जैसे ही उसने आंखें खोली तो पाया कि एक अजीब सा दिखने वाला प्राणी उसके सिर के पास ही अपना सिर रखकर अजीब सी भाषा में कुछ बड़बड़ा रहा था। उसे देखते ही आशुतोष चीखते हुए बिस्तर से उतर गया। जैसे ही वो ड़रकर बिस्तर से उतरा उसे किसी के हंसने की आवाज आई। उसने चौंककर कमरे के दूसरी तरफ नजर उठाई तो उसे अनिका की एक धुंधली सी आकृति या यूं कहे कि अरूंधती की आत्मा दिखाई दी।


"व्हट द हैल...." आशुतोष ने अपनी नजरें फिर से उसी प्राणी की तरफ मोड़ी। वह दो-ढ़ाई फुट का जीव था, जिसकी आकृति काफी हद तक हैरी- पॉटर के डॉबी से मिलती- जुलती थी। उसमें और डॉबी में बस दो ही अंतर थे, पहला ये कि उसने टॉवल की जगह सफेद धोती पहनी थी और दूसरा कि उसका रंग बिल्कुल सफेद संगमरमर की तरह था। मानों अभी उस पर सफेद चूना पोता गया हो।


"ये क्या चीज है?" आशुतोष को अभी भी उस जीव से ड़र लग रहा था, लिहाजा अपनी सुरक्षा के लिये वो अरूंधती के पास सरक गया।


"ये ही तो गुरू महेन्द्रनाथ जी हैं।" अरूंधती ने उत्साह से कहा।


"तो क्या वो बौने थे?" आशुतोष सिर खुजाकर बोला।


"नहीं! इनकी ये अवस्था तो इनकी प्रेत- योनि के कारण है।" अरूंधती के मुख पर विषाद की रेखायें स्पष्ट दिख रहीं थी।


"तो मतलब आपका भी सही टाइम पर पिंड- दान नहीं दिया तो आप भी ऐसे ही...." आशुतोष ने कल्पना की कि अरूंधती का प्रेत- योनि में कैसी रूप होगा।


"हां, लेकिन इस समय तुम गुरूजी से जल्द ही अघोरा के बारे में जो पूछना चाहते हो पूछ लो।" अरूंधती ने व्यग्रता दिखाई- "बड़ी मुश्किल से इन्हें मनाकर लाई हूं।"


"आपकी मदद के लिये मैं तहे- दिल से शुक्रगुजार हूं।" आशुतोष अरूंधती से बोला और झिझकते हुये उस प्रेत के पास पहुंचा।


"बाबाजी.... वो अघोरा को मारने का तरीका...." आशुतोष कुछ बोल ही रहा था कि उसकी बात काटकर वो प्रेत अजीब सी भाषा में उसे कुछ समझाने लगा। आशुतोष को लगा कि उसने कोई चायनीज चैनल लगा रखा है। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था तो असमंजस में अरूंधती को निहारने लगा।


"दरअसल ये प्रेत- योनि में हैं तो संसार की सारी भाषायें समझ तो सकते हैं, लेकिन बात सिर्फ पैशाची भाषा में कर सकते हैं।" अरूंधती ने मुस्कुराकर कहा- "वो कह रहें हैं कि अघोरा को मारना इतना आसान नहीं है। उसके पास पंचतत्वों का शरीर नहीं है और आत्मा की स्थिति शरीर के बाहर अत्यंत सुदृढ़ हो जाती है, जिससे पंचतत्वों के शरीर में रहकर उसे हराना काफी कठिन होता है और फिर अघोरा तो स्वयं तंत्र- ज्ञान रखता है।" 


"लेकिन हर प्रॉब्लम का सोल्यूशन तो होता ही है। इसका भी जरूर होगा।" आशुतोष ने उत्सुक नजरों से देखते हुये प्रेत से कहा।


"शिव तत्व और शक्ति के अंश के एक होने से उत्पन्न ऊर्जा से ही अघोरा का अंत हो सकता है।" अरूंधती ने कहा जो दुभाषिये का काम कर रही थी।


"तो क्या अब शिव- शक्ति की ऊर्जा लेने कैलाश पर्वत चढ़ने जाऊंगा?" आशुतोष ने चिढ़कर कहा, जिसका उसे कोई उत्तर नहीं मिला।


"यार प्लीज! तुम लोग मुझे इसका सोल्यूशन बताओ और आई प्रॉमिस कि तुम्हारी मुक्ति में कुछ भी उठाकर नहीं रखूंगा। गरूड़- पुराण, भागवत, सत्य- नारायण की कथा जो- जो होता है सब करूंगा बस इस प्रॉब्लम का सोल्यूशन बता दो।" आशुतोष ने फिर से उम्मीद बांधी कि शायद कोई तोड़ मिल जाये।


"तुम अगर एक बार कांडगढ़ के किले में पहुंच गये तो उपाय तुम्हें मिल ही जायेगा।" अरूंधती बोली- "तुम्हारे शरीर में गुरूजी को शिव- तत्व की अनुभूति हो रही है।"


"क्या? अनिका के बारे में भी कह रहे थे कि उस पर देवी की कृपा है और वो किसी खास नक्षत्र में जन्मीं है।" आशुतोष उत्साहित होकर बोला- "लेकिन हम उसे मारेंगें कैसे?"


"ये तो नहीं पता लेकिन मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही अघोरा का अंत होगा।"


"साला हर कोई बोल रहा है कि अघोरा जल्द ही खत्म हो जायेगा लेकिन कैसे? किसी को भी नहीं पता।" आशुतोष गुस्से में बड़बड़ाया।


"तुम्हें खुद पर भरोसा करना चाहिये। अपनी शक्तियों को पहचानों और आने वाले संकट का ड़टकर सामना करो।" अरूंधती बोली।


अरूंधती की बात सुनकर आशुतोष भी चौंक गया और उसे बरबस अपने सपने की याद आ गई। यूं तो आमतौर पर हम अपने सपनों को भूल जाते हैं लेकिन वो सपना उसके दिमाग पर छप चुका था। मुस्कुराता हुआ बोला- "लगता है कि अब सपनों से ही अघोरा को हराना होगा।"


अरूंधती को उसके कहने का मतलब समझ में नहीं आया इसलिये कौतुक भरी नजरों से उसे देखने लगी लेकिन आशुतोष व्याख्या करने की बजाय हंसते हुये बाथरूम में घुस गया।


* * *



बाथरूम से हाथ मुंह धोकर आशुतोष बाहर आया और फर्श पर पद्मासन लगाकर बैठ गया। पद्मासन मुद्रा में ध्यान लगाकर उसने ह्रीं बीजमंत्र का जाप शुरू कर दिया। सूर्योदय के कुछ पहले तक उसका मंत्रजाप अनवरत जारी रहा। इस दौरान प्रेत- बाबा और अरूंधती एकटक उसके चेहरे को निहारते रहे। आशुतोष का चेहरा मंत्र- जाप के साथ- साथ गुस्से से भी कांप रहा था। क्रोध से उसकी पूरी मुखाकृति रक्तवर्णीय हो चली थी और मंत्रजाप के बीच- बीच में उन्हें उसकी हुंकार भी सुनाई दे रही थी।


मंत्रजाप रोककर जैसे ही वो आसन से उठा तो उसकी पूरी काया पलट चुकी थी। मृदु स्वभाव वाले उसके चेहरे पर कठोरता के भाव थे। उसकी आंखों में गुस्सा और क्रूरता साफ दिख रही थी। उसके शरीर से निकलती ऊर्जा को अरूंधती और प्रेत बाबा भी महसूस कर पा रहे थे। आशुतोष ने आंखे बंद कर एक गहरी सांस भरकर निःश्वास छोड़ी। मात्र एक सांस के अंतर से वो पुनः अपने पुराने स्वरूप में लौट आया था।


"तो प्रेत- बाबा चलें?" आशुतोष मुस्कुराया।


"कहां?" अरूंधती चौंक उठी।


"अघोरा के गढ़ पर धावा बोलने।" आशुतोष संयत स्वर में बोला।


"लेकिन...."


"अभी ब्रह्म- मुहूर्त चल रहा है।" आशुतोष हंसकर बोला- "इस समय निगेटिव एनर्जी अपनी लोएस्ट पीक पर रहती है तो जाहिर है कि वो सिक्योरिटी वाल भी कमजोर होगी इसलिये उसे तोड़ने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी।"


इसके जवाब में कुछ कहकर प्रेत- बाबा तेजी से कमरे के बाहर निकल गये। आशुतोष को तो कुछ समझ नहीं आया लेकिन अरूंधती विस्मित नजरों से आशुतोष को घूरने लगी।


"अरे यार.... इस प्रेत को बोलो कि मैं उड़न- छू नहीं हो सकता और रास्ता इसे ही बताना है इसलिये उसे समझा- बुझाकर गाड़ी में बैठाओ। आज तुम भूत- प्रेतों को इंसानी वाहन पर सैर करवाता हूं।" आशुतोष अरूंधती को नजरअंदाज कर हंसते हुये कमरे से बाहर निकल आया।



* * *


अनिका शिवालय से लौटकर भी पूरी रात शिव- पंचाक्षरी मंत्र का जाप करती रही। अर्धरात्रि के बाद धीरे- धीरे उसके शरीर से एक तीव्र प्रकाश निकलने लगा। उसके मस्तक के पीछे एक स्वर्ण आभामंडल विकसित होने लगा, जो सूर्य की भांति प्रकाशवान था।


इन सब घटनाओं से अनभिज्ञ अघोरा अपने पीठ पर अपनी तंत्र- साधना में व्यस्त था। वो आशुतोष की किसी शक्ति द्वारा रक्षण की बात सुनकर अत्यंत शंकित था और उस शक्ति का परिचय प्राप्त करने के लिये व्याकुल भी। लेकिन उसे आश्चर्य तब हुआ, जब अपना सारा सामर्थ्य लगा देने पर भी उसे उस शक्ति का ज्ञान नहीं हुआ।


"असंभव.... मेरे हजार वर्षों के तप और साधना के बाद भी मैं उस शक्ति का परिचय प्राप्त नहीं कर पा रहा हूं।" अघोरा गरजा- "ये कैसे संभव है? क्या स्वयं महाशिव धरती पर उस मानव का रक्षण कर रहे हैं? इसका तो एक ही अर्थ है कि उन दोनों ने मुझसे झूठ कहा परन्तु कोई नहीं अब मैं कृत्या का प्रयोग करूंगा।"


अभी अघोरा इसी उहापोह में था कि उसे द्वार पर एक हल्की नीले रंग की आभा की झलक मिली। उसने ताज्जुब के साथ द्वार की ओर टकटकी लगाये देखा और सम्मोहित सा उस प्रकाश के स्त्रोत की खोज में निकल पड़ा। उसके बढ़ते कदमों के साथ ही उस खाई पर पुल बनना शुरू हो गया और उसके पार उतरते ही रास्ता फिर से गायब हो गया।


रास्ते में अघोरा को अपने चीखते- पुकारते प्यादे नजर आये, जिनपर वो नील- प्रकाश तेजाब का सा असर कर रहा था। ये सारा घटनाक्रम अघोरा की समझ से परे था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि ये प्रकाश कैसा है और कहां उसका स्त्रोत हैं? लेकिन इस घटना से वो पूरी तरह विचलित हो गया और पागलों की तरह उस प्रकाश स्त्रोत को पूरे महल में ढूंढने लगा।


उसकी तलाश अनिका के कमरे में आकर पूरी हुई। उसका पूरा कमरा नीले प्रकाश से भरा हुआ था। अघोरा ने दरवाजे के अंदर झांकने का प्रयास किया तो उसकी आंखे चौंधियां गईं। आंखों पर हाथ रखकर किसी तरह उसने कमरे में देखा तो पाया कि इस प्रकाश का स्त्रोत तो स्वयं अनिका थी।


"ये.... ये.... असंभव है।" वो विक्षिप्तों की भांति चिल्लाया- "इसे इतनी शीघ्र अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता। कुंडलिनी जागृत करने में तो कई दशक बीत जातें हैं।"


इन सबसे अनजान अनिका अपनी साधना में मग्न थी। उसे न तो अपने शरीर में हो रहे परिवर्तनों का भान था और न ही बाहर हो रहे हंगामे का। वो तो शिव- भक्ति के रस में डूबी हुई निरंतर पंचाक्षरी- मंत्र का जाप कर रही थी।


"अगर इसकी साधना पूर्ण हो गई तो इससे विवाह करने के स्थान पर मुझे अपने अस्तित्व को ही गंवाना पड़ेगा। मुझे तो मात्र इसके रक्त की अभिलाषा है इसलिये उचित यही होगा कि इसकी हत्या कर इसके रक्त को संचय कर लूं।" अघोरा पागलों की तरह बड़बड़ाया और अपने चारों तरफ कोई सुरक्षा दीवार बनाई, जिससे वो उस प्रकाशित कमरे में अविचलित खड़ा रह सके। फिर उसने कोई मंत्र बुदबुदाकर अपनी हथेली की हवा अनिका की तरफ फेंक दी।

उसकी हथेली से एक काला धुंआ निकला, जो सर्पाकृति बनाकर अनिका की तरफ तेजी से बढ़ चला लेकिन इससे पहले कि अनिका तक पहुंच पाता, किसी शक्ति से टकराकर चीखते हुए भस्म हो गया।


ये अजूबा देख अघोरा हैरान हो गया। उसने ध्यान से अनिका के चारों तरफ नजर दौड़ाई लेकिन पुनः उसके मुख पर हैरानी के भाव उभर आये। असमंजस में बड़बड़ाया- "अगर इसने सुरक्षा चक्र बनाया ही नहीं है तो कौन सी शक्ति इसका रक्षण कर रही है?"


उसने पुनः अपने हाथ आसमान की तरफ फैलाये और अचानक से एक तेज मेघ- गर्जन के साथ उसके हाथों में आकाशीय बिजली आकर ठहरने लगी। कुछ देर तक मंत्र बुदबुदा कर उसने अपनी दोनों हथेलियों की दिशा अनिका की तरफ कर दी। उसकी हथेलियों से एक विद्युत तरंग निकलकर अनिका की बढ़ने लगी लेकिन आश्चर्य.... अनिका तक पहुंचने से पहले ही किसी शक्ति ने उस विद्युत को रोक लिया। अघोरा ने पूरी ताकत के साथ बिजली को अनिका तक ठेलने की कोशिश की लेकिन काफी प्रयास के बाद भी वो सफल नहीं हो पाया और अचानक एक तेज झटके से कमरे के बाहर जा गिरा। इस प्रहार से अघोरा भी चकरा गया था लेकिन फिर दुबारा कमरे में आ पहुंचा।


"आश्चर्य है! मुझसे अधिक शक्तिशाली ये शक्ति कौन है? अवश्य ही कोई उच्च- दैवीय शक्ति है। लगता है अब मारण तंत्र का प्रयोग करना ही होगा।" कहते हुये अघोरा ने अपनी जटा से कुछ बाल तोड़कर उन पर मंत्र फूंका और अनिका की दिशा में उछाल दिये।


अघोरा के हाथ से निकलते ही वो बाल कुछ पल तो हवा में स्थिर रहे लेकिन फिर अचानक उनके आकार में परिवर्तन होने लगा और एक पंचशूल की आकृति बनाकर वो तेजी से अनिका की तरफ बढ़े। लेकिन इसके बाद जो हुआ वो अप्रत्याशित था। अघोरा ने देखा कि अनिका के चारों तरफ फैले उस नील- प्रकाश से एक पुरूष की मुखाकृति निकली जिसने उस शूल को उदरस्थ कर लिया।


"असंभव.... कालभैरव! वो भी बिना सुरक्षा चक्र के?" अघोरा की आंखे एक पल को तो फटी की फटी रह गई लेकिन अचानक वो ठहाका लगाकर हंस पड़ा।


"शंभो.... शंभो.... आप सच में भोलेनाथ हैं। काल- भैरव बनकर आप इस मूर्ख कन्या की मेरे तंत्र से तो रक्षा कर सकते हैं परन्तु मेरे बाहुबल से इसकी रक्षा कौन करेगा?" अघोरा ने अट्टाहास किया- "कलि के प्रभाव में देवों ने पूर्णतः पृथ्वी का त्याग कर दिया है और आप भी कैलाश की परिधि से निकलकर इस कन्या की रक्षा कर पाने में असमर्थ हैं।"


अट्टाहास करते हुये अघोरा ने एक हाथ हवा में उठाया और अगले ही पल उसके हाथ में एक लौह- दंड था। अघोरा हंसते हुये अनिका के पास गया और उस लौह- दंड से उसके सिर पर वार कर दिया। प्रहार बहुत ही भयानक था, जिसके प्रभाव से अनिका भरभराकर आसन से जमीन पर गिर पड़ी और उसके शरीर से निकलने वाला नील- प्रकाश भी धीरे- धीरे उसके शरीर में समाने लगा।


* * *



आशुतोष की इनोवा अपनी ही रफ्तार से भागी जा रही थी। उसकी बगल की सीट पर अरूंधती तैर रही थी, जबकि पीछे की सीट पर प्रेत- बाबा थे। प्रेत- बाबा बार- बार अपनी भाषा में कुछ कहते हुये उसकी सीट पर झुक जाते, जिससे उसके पूरे शरीर में सिहरन पैदा हो जाती। प्रेत- बाबा के छूते ही उसे ऐसा लगता मानों उसकी पीठ पर बर्फ की सिल्लियां बांधी गई हों।


"यार ये अजीब मुसीबत है। ये बाबा तो प्रेत हैं न! तो फिर बार- बार बेताल की तरह मेरी गर्दन पर क्यूं चढ़ जा रहें हैं?" आशुतोष कुढ़ते हुये अरूंधती से बोला। हर बार प्रेत के छूने से उसको आगे सरकना पड़ रहा था, जिस कारण उसे गाड़ी चलाने में दिक्कत हो रही थी।


"वो तो तुम्हें आशीर्वाद और सलाह दे रहें हैं।" अरूंधती ने मुस्कुराकर कहा।


"इनकी सलाह के चक्कर में मैं गाड़ी ठोक दूंगा।" आशुतोष हंसकर बोला- "माना कि आप दोनों का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन मैं तो अभी जिंदा हूं और वैसे भी मुझे कौन सा उनकी बात समझ में आ रही है।"


"यहां से दायें मुड़ना है।" अरूंधती ने कहा तो आशुतोष ने ब्रेक लगा दिये। वो एक तिराहे पर खड़े थे, जहां मुख्य सड़क से एक पगड़ंड़ी जंगल की तरफ बढ़ रही थी। अरूंधती ने उसी पगड़ंड़ी की तरफ इशारा किया था।


"यार ये पुराने जमाने के राजा लोग अपना महल जंगलोंं के बीच क्यों बनाते थे? खुद तो चले गये और अब वो खंडहर भूतों का अड्डा बन गये हैं, जिन्हें हमें झेलना पड़ता है।" आशुतोष ने मुस्कुराते हुये कहा और गाड़ी उसी पगड़ंड़ी पर चढ़ा दी।


"अपनी सुविधा, ऐश्वर्य और विलास के आगे इंसान कहां कुछ देख पाया है।" कहते हुये अरूंधती ने फीकी सी मुस्कान दी।


"ये भी सही है!" आशुतोष ने सुर में सुर मिलाया- "बाय द वे.... मैं कल से आपसे एक सवाल पूछना चाहता था। अगर प्रेत हमारी भाषा बोल नहीं सकते तो जब किसी पर भूत- प्रेत चढ़ता है तो वो आदमी या प्रेत हमारी भाषा में कैसे बात करता है?"


"क्योंकि है तो वो इंसान ही न! बस ये समझ लो कि वो एक तरह से सम्मोहित रहता है।" अरूंधती ने समझाते हुये कहा- "सबसे पहले तो तुम ये बात समझ लो कि इंसानों के अलावा भी चौरासी लाख और भी प्रजातियां हैं। इनमें से कुछ जीवधारी यानि शरीर वाले होते हैं और कुछ अजीव। अजीव यानि निर्जीव नहीं बल्कि अजीव यानि जिनका शरीर पांच- तत्वों से न बना हो। जैसे अतृप्त आत्मा, जिन्हें तुम भूत कहते हो, प्रेत, पिशाच, यक्ष, गंधर्व.... इनमें से कुछ उच्च वर्ग की योनियां है और कुछ निम्न- कोटि की। शरीर इनके पास भी होता है लेकिन वो अधिकतर केवल एक ही तत्व का बना होता है। जैसे अतृप्त आत्माओं का शरीर सिर्फ वायु तत्व का बना होता है। कुछ विशेष योनियों में तीन तत्वों से बना शरीर भी होता है।"


"ओह.... तो तभी भूत- प्रेत चढ़ने को हवा लगना भी कहते हैं।" आशुतोष ने समझने वाले भाव से कहा।


"हां.... पैशाची भाषा मुख्य- रूप से पिशाचों की भाषा है। जो सभी निम्न- योनियां में प्रचलित है जैसे उच्च- योनियों जैसे देवों, यक्षों और गंधर्वों में संस्कृत है। वैसे प्रेत- लोक की अपनी प्रेत- भाषा भी है लेकिन अधिकांश प्रेत पैशाची में ही बात करते हैं। एक तरह से पैशाची भाषा निम्न- योनियों की अंग्रेेजी है।" अरूंधती मुस्कुराकर बोली- "जब कोई शक्ति किसी मनुष्य को अपने वश में करती है तो उसके दिमाग को भी अपने काबू में करती है और उस व्यक्ति के माध्यम से साधारण जन से बात करती है। बात वो पैशाची में ही करती है, लेकिन उस मनुष्य का दिमाग सामने वाले को उसकी भाषा में ही वो बात कहता है।"


"तो आप मुझसे कैसे बात कर पा रहे हो? आई मीन हम तो हिंदी में बात कर रहे हैं!" आशुतोष ने चौंककर अरूंधती से पूछा।


"क्यूंकि अभी मेरा इस धरती से सम्पर्क नहीं टूटा है।" अरूंधती ने हंसकर जवाब दिया तो आशुतोष एकटक उसकी तरफ देखने लगा।


"देखो, जब तक आत्मा इस भू- लोक से इतर योनि में नहीं चली जाती, तब- तक उसे अपने संसार का सम्पूर्ण ज्ञान और अपनी भाषा पर अधिकार रहता है।" अरूंधती ने कहा तो आशुतोष अपना सिर खुजाने लगा।


"अगर कोई व्यक्ति अकाल मृत्यु मरता है या किसी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं होती तो वो अपनी इच्छानुसार धरती में रह सकती है।" अरूंधती ने साधारण शब्दों में समझाते हुये कहा- "इसे इस तरह समझो। एक जीव के सात शरीर होते हैं, जिनमें से पहले शरीर में प्राण, चौथे शरीर में इच्छायें और कामनायें और अंतिम सातवें शरीर में जीवात्मा रहती है। इंसान के मरते ही पहला शरीर नष्ट होने लगता है और सातवां शरीर यानि जीवात्मा यमलोक या पितृलोक चली जाती है लेकिन अगर इंसान अकाल मृत्यु मरे या उसकी कोई इच्छा शेष हो तो जीवात्मा का एक अंश चौथे शरीर के साथ धरती पर ही रूक जाता है, जिसे तुम लोग भूत कहते हो।" 


"साला एक वेद तो आत्माओं पर ही लिखा जाना चाहिये।" आशुतोष ने आश्चर्य दिखाया तो अरूंधती मुस्कुराकर बोली- "वेद तो मात्र जीवन- दर्शन हैं और आत्मा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। आत्मा तो स्वयं परमेश्वर का एक अंश है। वेद ईश्वर को 'नेति- नेति' कहतें हैं तो आत्मा भी 'नेति- नेति' ही हुई।"


"मां कसम.... अगर हॉग्वर्ट्स की तरह यहां इंडिया में मैं किसी जादूगरी के स्कूल को जानता तो आपको आत्मा- शास्त्र का प्रोफेसर लगवा देता।" आशुतोष ने ठहाका लगाया।


इधर इन दोनों में ये बातें हो ही रहीं थी कि पीछे की सीट पर अचानक प्रेत- बाबा उछल- कूद मचाने लगे। वो कभी आशुतोष का हाथ पकड़ते तो कभी गाड़ी की सीट पर अपना सिर पीटने लगते।


"अरे आपको भी ग्रिनगॉट में नौकरी दिलवा दूंगा।" आशुतोष ने चिढ़कर ब्रेक लगा दिये और अरूंधती का चेहरा ताकने लगा, जो असमंजस के भाव लिये स्थिर बैठी थी।


"गुरूजी कह रहे हैं कि यहां से तुम्हें अकेले ही जाना होगा।" अरूंधती ने झिझकते हुये कहा- "यहां से कुछ ही दूरी पर वो अदृश्य सुरक्षा दीवार है, जो तुम्हें धुंध के रूप में दिखेगी। उसके आगे से ही अघोरा की दुनिया शुरू होती है। अघोरा बहुत ताकतवर हो गया है और अगर हम तुम्हारे साथ उस दीवार के पास गये तो वो हमें अपनी दुनिया में खींच लेगा। हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है कि उसका मुकाबला कर सकें।"


"कोई बात नहीं.... बस मुझे उस दीवार की लोकेशन बता दो, बाकी मैं संभाल लूंगा।" आशुतोष ने मुस्कुराकर कहा।


इसके बाद प्रेत- बाबा का कहा अरूंधती ने आशुतोष को कह सुनाया और उसे अपना ख्याल रखने की हिदायत देते हुये दोनों गाड़ी से उतर पड़े।

"हम तुम्हारा यहीं इंतजार करेंगें।" गाड़ी से उतरकर अरूंधती ने मुस्कुराकर कहा- "अपना ख्याल रखना।"


"मैं तो अघोरा का ख्याल रखने जा रहा हूं।" आशुतोष हंसते हुये बोला और गाड़ी आगे बढ़ा दी।



* * *


अरूंधती और प्रेत बाबा के उतरते ही आशुतोष का मन एक बार फिर अनिका की ओर चला गया। जल्द ही वो अनिका को अघोरा की कैद से छुड़ाकर ले आयेगा और फिर अनिका के कहे अनुसार ठाकुर विशम्भरनाथ से वो अपनी शादी की बात करेगा। ये विचार आते ही उसके मन में लड्डू फूटने लगे। अपने ख्यालों से बाहर आकर उसने टाइम- पास करने के लिये रेड़ियो ऑन किया लेकिन वो बस "कर्र...." की आवाज करता रहा।


"एक तो मुझे आज तक समझ नहीं आया कि इन साले भूतों को इलेक्ट्रॉनिक चीजों से क्या प्रॉब्लम होती है?" आशुतोष बड़बड़ाया और रेड़ियो पर थप्पड़ बरसाने लगा। जैसे कि यह उस मशीन की गलती हो, लेकिन तब भी रेड़ियो शुरू नहीं हुआ तो उसने उसे बंद कर दिया।


ब्रह्म- मुहूर्त का समय चल रहा था और कुछ ही देर में सूर्योदय होने वाला था। सुनसान जंगल में बिना गानों के उस कार में उसे अजीब सा लग रहा था। उसे अचानक से बहुत गुस्सा आ रहा था। कुछ ही दूर जाने पर उसे एक पीपल का पेड़ मिला, जहां से प्रेत बाबा के अनुसार अघोरा की गुप्त दुनिया शुरू होती थी।


पीपल के पेड़ के पीछे से एक धुंध सी उठ रही थी, जो लगभग पूरे जंगल में फैली हुई थी। उसने गाड़ी रोकी और अपना बैग लेकर पीपल के पेड़ के पास जा पहुंचा।


"हां भाई.... कोई चुड़ैल या ड़ायन है क्या यहां? जो यह बता सके कि मैं सही जगह आया हूं या नहीं!" आशुतोष पीपल के पेड़ को ताकते हुये बोला।


"अरे अगर कोई है तो सामने आ जाओ। शरमाओ मत! मुझे बस रास्ता पूछना है, शादी के लिये हाथ नहीं मांगना...." आशुतोष पागलों जैसे हंसा और बैग जमीन पर रखकर एक कपड़े की पोटली और पानी की बोतल निकाली। उस पोटली में भभूत और बोतल में अभिमंत्रित जल था, जो उसे राज- राजेश्वरी मंदिर के पुजारी ने दिया था।


आशुतोष ने अभिमंत्रित जल से हाथ- मुंह धोकर उसे अपने पूरे बदन पर छिड़का और फिर पूरे बदन पर भभूत मल ली। इसके बाद ह्रीं बीजमंत्र का जाप करते हुये सीधे उस धुंध में घुस गया। काफी देर धुंध में चलने के बाद वो धुंध के दूसरे छोर पर पहुंचा, लेकिन उसे लगा कि वो रास्ता भटक गया है क्यूंकि धुंध के इस ओर भी साधारण सा जंगल ही था और महल का कहीं नामो- निशान नहीं था। उसने चकराकर अपने आस- पास देखा लेकिन कहीं भी उसे कोई भूत- प्रेत या कांडगढ़ का किला नहीं दिखा लिहाजा मन में आशंका लिये आश्चर्यचकित सा आगे बढ़ने लगा।


अभी वो कुछ ही दूर चला था कि उसे लगा मानों कोई उसका पीछा कर रहा है। वो बिना रूके या पीछे देखे चुपचाप आगे बढ़ता रहा लेकिन उसके कान अपने पीछे ही लगे थे। हालांकि उसे पद- चापों की आवाज नहीं सुनाई दे रही थी लेकिन उसे किसी की पैनी नजर खुद पर टिकीं महसूस हो रही थी।


"हैलो? कौन है? भूत अंकल या चुड़ैल आंटी....? प्लीज सामने आ जाइये, मुझे बहुत ड़र लग रहा है।" आशुतोष हंसते हुये बोला और जवाब का इंतजार करने लगा।


"देखो आखिरी बार बोल रहा हूं। जो भी हो सामने आ जाओ वरना वो हालत करूंगा कि शैतान को भी तुम्हारी हालत पर दया आ जायेगी।" आशुतोष गुर्राया। अचानक उसका गुस्सा बढ़ने लगा और और उसके गाल और आंखे लाल होने लगी। क्रोधातिरेक वो लंबी- लंबी सांसे भरने लगा।


"तो अब भुगतो...." आशुतोष गरजते हुये बोला और बुदबुदाते होंठों से कोई मंत्र बुदबुदाने लगा। कुछ ही देर में उसे एक लड़की की चीख सुनाई दी। मंत्र- जाप करते हुये वो उस दिशा में बढ़ा और कुछ ही दूर जाकर पाया कि एक बच्ची, जिसकी उम्र कोई बारह साल रही होगी, जमीन पर पड़ी तड़प रही है। उसने मंत्र- जाप बंद कर उसे देखा लेकिन आशुतोष को देखते ही वो उससे दूर भागने लगी।


"रूको.... कौन हो तुम? अपने असली रूप में आओ। तुम्हारी ये चालें मुझपर नहीं चलेंगीं।" आशुतोष गुस्से में बोला तो वो लड़की रूक गई और एकटक आशुतोष के चेहरे को देखने लगी। उसके चेहरे पर ड़र के भाव और आंखों में आंसू थे।


"प्लीज भैया.... मुझे जाने दो। मुझे उस गंदे बाबा के पास नहीं जाना।" वो लड़की गिड़गिड़ाई। उसकी करूण आवाज सुनकर और उसके आंसू देख एकबारगी तो आशुतोष का दिल भी पसीज गया लेकिन खुद को संभालकर कड़ी आवाज में बोला- "अपनी बकवास बंद करो और चुपचाप मुझे उस अघोरा तक पहुंचने का रास्ता बता दो, वर्ना...." आशुतोष ने दुबारा मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया।

मंत्र- प्रभाव से वो लड़की पीड़ा से तड़पने लगी और घुटनों पर आ गई। चीखते हुए बोली- "लेकिन भैया मैं किसी अघोरा को नहीं जानती। मैं तो यहां अभी दस दिन पहले ही आई हूं...."


लड़की की बात सुनकर आशुतोष का गुस्सा बढ़ गया। उसने मंत्र- जाप रोककर गुस्से में हाथ में अभिमंत्रित जल लेकर उस लड़की की तरफ फेंक दिया लेकिन उस लड़की पर उस जल का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसे अरूंधती वाली घटना याद आई और यकीन हो गया कि ये बच्ची कोई दुष्ट आत्मा नहीं है। उसे अपने कठोर बर्ताव के लिये पछतावा हो रहा था।


"तुम्हारा नाम क्या है?" आशुतोष ने कोमल स्वर में पूछा तो वो लड़की ताज्जुब से उसके चेहरे को देखने लगी।


"अंजली...." वो लड़की सुबकते हुये बोली- "प्लीज भैया! आप मुझे उस बूढ़े बाबा के पास लेकर मत जाइये न!"


आशुतोष ने हैरान होकर उसकी तरफ देखा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किस बूढ बाबा की बात कर रही थी या वो उसे क्या समझ रही थी?


"मैं तुम्हें किसी बाबा के पास नहीं ले जाऊंगा लेकिन तुम किस बाबा की बात कर रही हो?" आशुतोष ने पूछा।


आशुतोष के सवाल पर अंजली के चेहरे पर हैरानी के भाव आये। बोली- "तो क्या आप उस गंदे बाबा के आदमी नहीं हो? वो बहुत गंदा दिखता है, काला- कलूटा, जिसके बदन पर कीड़े रेंगते हैं और वहां लोग उसे मा.... मामीम...."


"महामहिम?" आशुतोष ने चौंककर पूछा।


"हां.... यही बुलाते थे। आप उसे कैसे जानते हैं?" अंजली के चेहरे पर फिर से भय दिखने लगा था।


"बस ये समझो कि मैं उसे ही मारने आया हूं।" आशुतोष ने मुस्कुराकर कहा।


"सच भैया? आप न उसे जल्दी से मार दो। वो बूढ़ा बाबा बहुत गंदा है। उसने वहां बहुत सारी दीदीयों को...." कहते- कहते अंजली रो पड़ी तो आशुतोष का मन भी विचलित हो गया।


"वो बाबा और उसके आदमी सबके साथ गंदा काम करते हैं। दस दिन पहले मुझे भी यहां लाये और फिर.... आप प्लीज उसको जल्दी से मारकर उन दीदियों को बचा लो प्लीज...." अंजली ने रो- रोकर कहा तो आशुतोष के रोम- रोम को अघोरा से घिन आने लगी। वहीं उसका मन कर रहा था कि अंजली के पैरों पर सिर रख दे, जो इतना सब भुगत कर भी दूसरों की फिक्र कर रही थी।


"तुम चिंता मत करो.... मैं उसका ऐसा हश्र करूंगा कि खुद महाकाल का कलेजा भी कांप जायेगा।" आशुतोष ने गुस्से से दांत भींचते हुए कहा- "वहां जाने का रास्ता...."


"मुझे पता है।" अंजली ने अपने आंसू पोछे- "लेकिन आप उसे मारोगे कैसे?"


"पता नहीं.... पर मारूंगा जरूर।" आशुतोष ने गहरी सांस छोड़ी।


"मैं भी न! कितनी बेवकूफ हूं। अभी तो आपने कोई मंत्र पढ़कर मुझे पकड़ लिया था तो उस बूढ़े बाबा को भी आप हरा ही दोगे।" अंजली एक मोहक मुस्कान के साथ बोली लेकिन आशुतोष जैसे चौंक सा गया।


"मैंनें मंत्र पढ़कर तुम्हें पकड़ा था?" आशुतोष ने चौंककर पूछा- "लेकिन मुझे तो कोई मंत्र आता ही नहीं है!"


"क्यों मजाक कर रहे हो भैया? आपने ही तो मुझे मंत्र पढ़कर एक जगह रूकने पर मजबूर कर दिया था। वर्ना भले ही मुझमें दूसरी ताकत न हो लेकिन गायब होना जानती हूं।" अंजली हंसकर बोली।


आशुतोष को समझ ही नहीं आया कि अंजली क्या कह रही है? उसे सच में याद नहीं था कि उसने कोई मंत्र पढ़ा था। उसे बस इतना याद था कि उसने उसे सामने आने को कहा था और जब वो सामने आई तो उसने उसपर अभिमंत्रित जल ड़ाला था।


"आखिर मेरे साथ हो क्या रहा है?" आश्चर्य से बुदबुदाते हुये आशुतोष ने अंजली को रास्ता दिखाने का इशारा किया।


* * *



अंजली आशुतोष को लेकर एक कुंएं के पास पहुंचीं। वो पूरा कुंआ मल- मूत्र और जानवरों के अस्थि- चर्म व रक्त से भरा पड़ा था। कुंएं से उठने वाली दुर्गंध से आशुतोष को अपनी नाक बंद करनी पड़ी। बड़ी मुश्किल से उसने अपनी उबकाई रोकी और भागते हुये कुंएं से दूर हट गया।


"ये क्या है?" आशुतोष गुस्से में बोला।


"यही तो वो रास्ता है, जो उसके महल तक जाता है।" अंजली बोली।


"लेकिन ऐसे रास्ते से मैं वहां.... कोई दूसरा रास्ता नहीं है क्या?" आशुतोष वापस जाने लगा। उसे लगा कि अगर वो एक भी पल वहां रूका तो उल्टियां कर- कर के मर जायेगा।


"मुझे बस यही एक रास्ता पता है। इसी से में वहां से भागी थी।" अंजली उसके पीछे- पीछे आते हुये बोली।


"आशुतोष...." उसके दिमाग में एक आवाज गूंजी- "वो कुंआ ही एकमात्र द्वार है और उसे दूषित इसलिये किया गया है ताकि कोई भी दैवीय शक्ति उस कुंएं को पार न कर सके। वास्तव में वो धुंध तो केवल धरती के प्राणियों को इस स्थान से दूर रखने के लिये एक छल है। अघोरा की वास्तविक सुरक्षा दीवार तो ये कुंआं है क्योंकि कोई भी दिव्य- शक्ति ऐसे अशुद्ध वातावरण में प्रविष्ट नहीं हो पायेगी।"


"तो मैं क्या करूं? कुंएं में उतरकर उसे खाली करने में कई दिन लग जायेंगें।" आशुतोष बोला।


"वो मायावी कुंआ है, जो कभी भी उन अशुद्धियों से मुक्त नहीं होगा।" आवाज दुबारा गूंजी।


"तो फिर ठीक है। आशुतोष दृढ़ स्वर में बोला- "मैं ऐसे ही इस कुंएं में उतरूंगा। वैसे भी मैं ये जंग किसी दैवीय- शक्ति के भरोसे नहीं लड़ रहा हूं।" कहते हुये आशुतोष पुन: उस कुएं की ओर मुड़ गया।

उसकी नजर अंजली पर पड़ी, जो उसे अपने आप में बातें करते देख हैरान थी। आशुतोष उससे बोला- "मुझे अंदर जाना होगा। तुम यहां से लौट जाओ और उस धुंध को पार करके तुम्हें एक औरत और बौना प्रेत...."


"मैं उस धुंध के पार नहीं जा सकती।" अंजली आशुतोष की बात काटते हुये बोली- "जब भी कोशिश करती हूं, रास्ता भटककर यहीं आ जाती हूं। कोई ताकत है, जो मुझे वापस यहीं लाकर खड़ा कर देती है।"


"ओह...." आशुतोष चकराया- "लेकिन अंदर तो मैं तुम्हें नहीं ले जा सकता। तुम यहीं आस- पास छुपकर मेरे आने का इंतजार करो।"


"लेकिन...." अंजली ने कुछ कहना चाहा तो आशुतोष उसे टोकते हुये बोला- "देखो मुझे खुद नहीं पता कि मैं उसे सच में हरा पाऊंगा या नहीं लेकिन अगर नहीं हरा पाया तो? तुम यहीं रूको और मेरे वापस लौटने का इंतजार करो। मैं तुम्हें वहां ले जाकर दोबारा खतरे में नहीं ड़ालना चाहता।"


अंजली को समझा बुझाकर आशुतोष कुंएं के पास पहुंचा। उसका मन शंकित था लेकिन फिर भी हिम्मत करके वो थूक गटकते हुये उस मल- मूत्र और पशुओं के रक्त, अस्थि- चर्म से भरे कुंएं के पास गया और उसमें छलांग लगा दी। कुछ देर तो उसे लगा कि वो किसी चक्रवात के मध्य में फंस गया है और कोई उसे पांव से पकड़कर गोल- गोल घुमा रहा है। कुछ देर तक यही स्थिति रही लेकिन थोड़े ही देर में वो धड़ाम से जमीन से जा टकराया।


* * * 



जमीन से टकराते ही आशुतोष बेसुध हो गया। कुछ देर बाद जैसे ही उसे होश आया वो चौंककर खड़ा हो गया और आंखे फाड़- फाड़कर अपने आस- पास देखने लगा। वो एक अजीब सी जगह थी, जहां बस अंधेरे का ही साम्राज्य था। चारों तरफ बस अंधकार ही अंधकार था। वो एक समतल जमीन पर खड़ा था, जो किसी सड़क की मानिंद लग रही थी। उसके आस- पास पूरी तरह से खंडहर हो चुके अनेकों झोपड़िंयां और मकान थे। पूरे इलाके में इंसान तो क्या किसी जानवर या परिंदे की भी मौजूदगी का निशान नहीं था।


आशुतोष ताज्जुब से अपने आस- पास के वातावरण को देख रहा था। उसे ताज्जुब हो रहा था कि जब वो कुंएं में कूदा था तो सूरज निकल आया था, फिर ये गांव अभी तक अंधेरे में क्यों डूबा हुआ है? उसने हैरानी के साथ आसमान की ओर देखा तो पाया आसमान का रंग काला या नीला न होकर लाल- पीला था। अभी वो अपने विचारों में ही गुम था कि उसकी नाक से एक दुर्गंध टकराई। उसने चौंककर अपने आस- पास देखा तो उसे कुछ नहीं दिखा लेकिन जैसे ही उसकी नजर अपने शरीर पर पड़ी तो घिन के मारे उसे उल्टी आ गई। उसका पूरा शरीर मल- मूत्र से सना था, जिससे उठने वाली दुर्गंध से उसे उबकाई आने लगी।


"तुम अशुद्ध हो चुके हो। शीघ्र ही स्वयं को स्वच्छ करो अन्यथा मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊंगा।" उसके दिमाग में फिर से आवाज गूंजी। उसने जल्दबाजी में अपने कपड़े उतार फेंकें और दौड़कर पानी की खोज करने लगा। वो अब मात्र अंडरवियर में था लेकिन अब भी उसके शरीर से दुर्गंध उठ रही थी, जिससे उसका सिर फटा जा रहा था। उसे अपने शरीर में एक अजीब सी कमजोरी महसूस हो रही थी। कुछ ही दूरी पर उसे एक कुंआ दिखा तो वो तेजी से उस ओर लपका।


कुंएं के जगत पर एक बाल्टी रस्सी से बंधी हुई थी। उसने जल्दी से बाल्टी कुंएं में फेंककर पानी निकाला लेकिन उसे ताज्जुब हुआ कि पानी सड़ा हुआ था और उसमें बारीक- सफेद कीड़े तैर रहे थे। उसके पास कोई और रास्ता नहीं था इसलिये मन मारकर उसने उसी पानी से नहाना शुरू कर दिया। कुछ देर तक तो सब ठीक था लेकिन अचानक से उसके शरीर के हर हिस्से में दर्द उठना शुरू हो गया। उसने हैरानी से अपने बदन की तरफ देखा तो पाया कि वो छोटे से कीड़े उसके बदन से चिपके उसका खून चूस रहे थे।


उसने तेजी से उन कीड़ों को अपने बदन से हटाना शुरू किया लेकिन उसकी हैरानी की कोई सीमा ही न रही जब उसने देखा कि जिस जगह से कीड़े हट रहे हैं, उस जगह पर एक घाव बन जा रहा था।


"ये रक्तपिपासु तंत्र- कीट हैं। कुछ देर तक तो मैं इन्हें तुम्हारे आंतरिक शरीर में प्रविष्ट होने से रोक लूंगा लेकिन बाह्य- शरीर की तुम्हें स्वयं रक्षा करनी होगी और शीघ्र ही इन कीटों से मुक्त होना होगा।" उसके दिमाग में फिर से वो आवाज गूंजी।


"तुम हो कौन? और इन कीड़ों को हटाऊं कैसे?" आशुतोष ने कीड़ों को शरीर से हटाते हुये पीड़ा में कराहते हुये कहा।


"तंत्र का प्रभाव तो तंत्र- मंत्र से ही रोका जा सकता है।" फिर आवाज आई।


इतना सुनते ही आशुतोष ने बिना सोचे- समझे नवार्ण मंत्र (ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चेः) का जाप शुरू कर दिया।


"ये मंत्र इस दूषित स्थान पर अपना प्रभाव नहीं दिखायेगा। तुम आदिदेव वराह भगवान का स्मरण करो। मात्र वहीं हैं, जो इस दूषित स्थान पर भी आकर तुम्हारी सहायता कर सकते हैं।" उस आवाज ने सलाह दी।


"लेकिन उनका तो कोई मंत्र मुझे नहीं पता!" आशुतोष गुस्से से चिल्लाया। उन कीड़ों ने उसका लगभग आधा खून चूस लिया था और आकार बढ़ने के साथ- साथ उनके रंग में भी परिवर्तन आने लगा था। अब उनका रंग गुलाबी हो चुका था।


"तुम्हारा सारा ज्ञान तुम्हारे भीतर ही है, बस तुम उसके प्रति जागरूक नहीं हो। शून्य में अपना ध्यान केंद्रित करो। तुम्हारी कुंडलिनी जागृत है और वही तुम्हारे ज्ञान का आधार भी है।"


आशुतोष के पास कोई और चारा तो था नहीं, लिहाजा उन कीड़ों से ध्यान हटाकर इतनी पीड़ा के बाद भी उसने पद्मासन लगाया और ध्यान में मग्न हो गया। कुछ ही देर में वो वराह देव गायत्री मंत्र बुदबुदाने लगा।


"ऊं नमो भगवते वराहरूपाय भूर्भुवः स्वः।

स्यात्पते भूपति त्यं देहयते ददापय स्वाहा।।"


मंत्र का ग्यारहवां जाप पूरा होते ही आकाश में एक तेज विस्फोट हुआ और उसके झटके से आशुतोष आसन से पीछे जा लुढ़का। वो चौंककर उठा तो पाया उसके सामने एक विराट आकृति का जीव था, जिसका पूरा शरीर सफेद बालों से ढ़का था और उसने पीली धोती पहन रखी थी। उसका मुंह कुछ अजीब सा था। उसके होंठ बाहर की तरफ गोल मुद्रा में थे, जिससे सुअर के थूथन का आभास हो रहा था। उसके दोनों वैंपायर दांत भी हाथी के दांतों की तरह ऊपर की ओर उठे थे। आशुतोष ने आश्चर्य से उस विराट पुरूष की ओर देखा और नमन किया। जैसे ही उसका ध्यान अपने शरीर पर गया तो उसने पाया कि उसके बदन पर मौजूद सारे कीड़े नष्ट हो चुके थे और उसके घाव भी धीरे- धीरे भर रहे थे।


"हमने उस द्वार को ही नष्ट कर दिया है, जिससे अब तुम अपनी शक्तियों का उपयोग कर पाओगे।" उस विराट पुरूष ने हुंकार भरी- "कहो तो तुम्हारे साथ चलकर उस ग्रामसिंह (कुत्ते) का भी अंत कर दूं?"


"नहीं भगवान! बस कुछ कपड़े दे देते तो...." आशुतोष ने झिझकते हुये कहा।


"हा.... हा.... हा.... तथास्तु।" उस विराट पुरूष ने अट्टाहास किया और अन्तर्ध्यान हो गया। उनके अन्तर्ध्यान होते ही आसमान में छाया पीतपन और रक्तता छंट गई लेकिन अब भी वातावरण अंधकार में डूबा हुआ था। आशुतोष के बदन पर भी कपड़े आ गये लेकिन ये देखकर उसका सिर चकरा गया कि वो पुराने जमाने की लाल धोती और नीला अंगवस्त्र पहने था।


"अबे यार....!" आशुतोष ने निराशा पूर्वक नि:श्वास छोड़ी और आगे की तरफ बढ़ गया।



* * *



क्रमशः


----अव्यक्त

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1 Comments

Niraj Pandey

09-Oct-2021 12:35 AM

वाह बहुत खूब

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